SAPTASAGAR (सप्तसागर-40)
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MATTAGAJENDRAJI (मत्तगजेंद्र जी-38)
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DWIVIDAJI (द्विविद जी-39)

पता- अयोध्या डाकघर से झुनकी घाट की ओर जाने वाले मार्ग पर 350 मीटर आगे जाने पर बायीं ओर यह स्थान स्थित है। शिलालेख- शिलालेख मुख्यद्वार के बायीं ओर लगा हुआ है। किवदंती- पौराणिक कथाओं के अनुसार त्रेता युग में जब प्रभु श्री राम ने अयोध्या में जन्म लिया तो ब्रम्हाजी ने समस्त देवता, महर्षि, गरुण, गंधर्व, यक्ष, नाग, किंपुरुष, सिद्ध, विद्याधर आदि से कहा कि अब समय आ गया है, आप सभी लोग अपने दिव्य अंश से पृथ्वी पर रीक्ष, वानर तथा अन्य वनचरों की स्त्रियों के गर्भ से उत्पन्न हों। तब ब्रम्हाजी के आदेशानुसार ही ऐसे पुत्र उत्पन्न हुए जो बलवान, इच्छानुसार रुप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु तुल्य वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से भी परास्त न होने वाले, तरह तरह के युद्ध उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न थे। इसी क्रम में मैंद और द्विविद नामक अतिबलशाली वानरों का जन्म हुआ। द्विविद वानर महान पराक्रमी योद्धा थे। लंका युद्ध में अपने बल एवं पराक्रम से रावण की सेना में हाहाकार मचा दिया था। बड़े बड़े राक्षसों को यह पैरों से कुचलकर मार दे रहे थे। इनके युद्ध कौशल को देखकर प्रभु श्री राम ने इन्हें दो युगों की आयु का वरदान दिया। रामचरितमानस के दोहे में द्विविद जी के नाम का वर्णन मिलता है। द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥ इस दोहे के अनुसार द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान ये सभी वानरराज इतने वीर एवं शक्तिशाली हैं की इन्हें बल की राशि की संज्ञा दी जाती है। मान्यता- कृष्णकथाओं के अनुसार द्वापर युग में द्विविद जी राजा पौंड्रक के सहयोगी हुए। राजा पौंड्रक स्वयं को असली वासुदेव कृष्ण कहता था। एक बार उसने कृष्ण जी का वेष धारण कर के उन्हें युद्ध की चुनौती दी। इसी युद्ध में वानरराज द्विविद का सामना बलराम जी से हुआ दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ और इस युद्ध में वानरराज द्विविद की हार हुई और वह भगवान कृष्ण के हाथों द्वापर युग में परमधाम को प्राप्त हुए। वर्तमान स्थिति- वर्तमान समय में यह स्थान पलटूदास जी के अखाड़े के रूप में जाना जाता है। यंही पर पलटूदास जी का समाधि स्थल भी है। स्थानीय पुजारी बताते हैं पूर्व में यह मंदिर द्विविद किला था। आज भी मंदिर जमीन से काफी ऊंचाई पर स्थित है। मन्दिर तक पहुचने के लिए सैकड़ों सीढियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मंदिर के गर्भगृह में रामदरबार के साथ मुख्य रूप से भगवान जगन्नाथ जी विराजमान हैं। इसी गर्भगृह में पलटूदास जी की समाधि भी स्थित है। यंहा भगवान जगन्नाथ की पूजा की एक मान्यता है। यह कहानी लंबी है, इसका वर्णन अयोध्या के प्रमुख सन्त में पलटूदास जी के जीवन परिचय में किया गया है। स्थानीय लोगों की राय- स्थानीय जनों का कहना है की यह पूर्व में द्विविद किला रहा है तो यंहा द्विविद जी की पूजा भी होनी चाहिए। स्वटिप्पणी- स्थानीय जनों से सहमत

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